सोहराय पर्व भारत में जनजाति (आदिवासियों) के द्वारा मनाया जाने वाला एक प्रमुख पर्व है। यह पर्व छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिसा ओड़िशा आदि के जनजातियों के द्वारा मनाया जाता है।
यह मुख्य रूप से संथालों का प्रमुख पर्व है जो धान फसल के तैयार होने पर मनाया जाता है। सोहराय पर्व दीवाली/दीपावली के दूसरे दिन से पाँच दिनों तक मनाया जाता है। जो इस प्रकार है :
- प्रथम दिन 'नायके' गोड़टाँडी ( बथान) में एकत्रित होते हैं। "जोहरा ऐरा" की पूजा कर मुर्गे की बलि दी जाती है। चावल - महुआ निर्मित 'हड़िया' चढ़ाया जाता है एवं माँझी के आदेश से उपस्थित जन समुदाय नाच-गान करते हैं।
- द्वितीय दिन 'गोहाल पूजा' होता है।
- तीसरे दिन 'सुटाउ' होता है। जिसमें बैलों को सजाकर मध्य में बाँधकर उसके आस-पास मंदर के थाप पर नाच-गान किया जाता हैं।
- चौथे दिन 'जाले' में अपने-अपने घरों से खाद्यान्न लाकर एकत्रित करते हैं। सामूहिक भोज की तैयारी होती है। यह सब मोद - मंगल, नाच-गान माँझी की देखरेख में होता है।
- पांचवें दिन इस दिन 'हांकु काटकम' मनाया जाता है। लोग अपने खेतों की नई फसल ला कर, उसकी खिचड़ी बनाते हैं, जिसे गाय और बैलों को पहले खिलाया जाता है।
सोहराय के बाद 'साकरात' आता है जिसमें समूह में शिकारमाही होती है। शिकार में किये पशु-पक्षियों के माँस को 'मरांग बुरू' को समर्पित सहभोज होता है।
पर्व के पीछे की कहानी :
इस पर्व को मनाने के पीछे प्रचलित कथा के अनुसार, जब मंचपुरी (मृत्यु लोक) में मानवों की उत्पत्ति होने लगी, तो बच्चों के लिए दूध की जरूरत महसूस हुई। चूंकि उस काल खंड में पशुओं का सृजन स्वर्ग लोक में होता था। इस वजह से मानव जाति ने आदिवासियों के साबसे प्रभावशाली देवता मरांगबुरू से इसकी मांग की।
आदिवासियों के मांग पर मरांगबुरू स्वर्ग पहुंचे और अयनी, बयनी, सुगी, सावली, करी, कपिल आदि गाएं एवं सिरे रे वरदा बैल से मृत्यु लोक में चलने का आग्रह करते हैं। परंतु दिव्य जानवरो ने मंचपुरी आने से मना कर दिया, तब मरांगबुरू उन्हें कहते हैं कि मंचपुरी में मानव युगोंं-युगोंं तक तुम्हारी पूजा करेगा। तब स्वर्गलोक के वे दिव्य पशु मंचपुरी आने के लिए तैयार हुए हैं और उनके आगमन पर उनके प्रति आभार प्रकट करने के लिए इस त्यौहार का प्रचलन प्रारंभ होता है।