यूं तो छत्तीसगढ़ में दशहरा / विजयादशमी सभी जगह मनाई जाती है, परंतु इनमे बस्तर और सारंगढ़ दशहरा का विशेष स्थान है। हालाकि बस्तर दशहरा का रावण वध से कोई संबंध नहीं है, फिर भी नाम की वजह से उसका उल्लेख किया गया है। सारंगढ़ दशहरे की शुरुआत राजा जवाहिर सिंह के काल में हुई। जिसमें रावण दहन के अतिरिक्त मिट्टी के गढ़ पर चढ़ाई कर आम नागरिकों के द्वारा शौर्य का प्रदर्शन किया जाता था। इसे गढ़ तोड़ना कहते है। गढ़ तोड़ने की परंपरा के पश्चात ही रावण दहन का कार्यक्रम सम्पन्न होता था। यह परम्परा आज भी प्रचलित है।
गढ़ तोड़ने की परंपरा:
गढ़ मिट्टी का शंकुनुमा आकृति का एक स्तम्भ होता है, इस गढ़ को मिट्टी और गोबर के लेप से एकदम चिकना कर दिया जाता था। गढ़ का ऊपरी हिस्से को राजमहल के मिट्टी से गढ़ का रूप देकर सुसज्जित किया जाता था। प्रतिभागी इस गढ़ पर चढ़ने का प्रयास करते है, प्रतिभागी गढ़ पर चढ़ने के लिए कांटानुमा लोहे के पंजा को उस गढ़ में गड़ा देता है और गीली मिटटी के कारण फिसलते-सम्हलते चढ़ते है। गढ़ के ऊपर कुछ व्यक्ति पहले से चढ़े रहते है जो डंडे से गढ़ (किले) के ऊपर चढऩे वाले पर प्रहार करते है और उन्हें गिराने का प्रयास करते है। प्रतिभागी उनके इस प्रयास से बचते हुए गढ़ पर चढ़ता है। जो प्रतिभागी सबसे पहले जो चढ़ने में सफल होता है उसे विजयी माना जाता है और नकद राशि और शील्ड देकर पुरस्कृत किया जाता है। पुराने समय में सारंगढ़ रियासत में ऐसे विजयी बहादुर को सेना में भर्ती किया जाता था।
By : प्रवीण सिंह