आर्य समाज की स्थापना 10 अप्रैल 1875 को दयानंद सरस्वती (जन्म मूल शंकर तिवारी) में द्वारा बॉम्बे में की गई थी। यह एक एकेश्वरवादी भारतीय हिंदू सुधार आंदोलन है जो वेदों में विश्वास के आधार पर मूल्यों और प्रथाओं को बढ़ावा देता है। आर्य समाज का आदर्श वाक्य है: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, जिसका अर्थ है - विश्व को आर्य बनाते चलो। दयानंद सरस्वती ने वर्ष 1875 में 'सत्यार्थ प्रकाश' नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में उन्होंने नारा दिया, 'वेदों की ओर लौटो।'
आर्य समाज के सिद्धांत :
1. वेदों की सर्वोच्च ग्रंथ के रूप में मान्यता। प्रत्येक आर्य को पढ़ना, सुनना और सुनना चाहिए।
2. ईश्वर ही सर्व सत्य है, सर्व व्याप्त है, पवित्र है, सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है और सृष्टि का कारण है. केवल उसी की पूजा होनी चाहिए।
3. सभी शक्ति और ज्ञान का प्रारंभिक कारण ईश्वर है।
4. सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए।
5. उचित-अनुचित के विचार के बाद ही कार्य करना चाहिए।
6. मनुष्य मात्र को शारीरिक, सामाजिक और आत्मिक उन्नति के लिए कार्य करना चाहिए।
7. प्रत्येक के प्रति न्याय, प्रेम और उसकी योग्यता के अनुसार व्यवहार करना चाहिए।
8. ज्ञान की ज्योति फैलाकर अंधकार को दूर करना चाहिए।
9. केवल अपनी उन्नति से संतुष्ट न होकर दूसरों की उन्नति के लिए भी यत्न करना चाहिए।
10. समाज के कल्याण और समाज की उन्नति के लिए अपने मत तथा व्यक्तिगत स्वार्थ को त्याग देना चाहिए।
समाज सुधार :
स्वामी दयानंद ने दलितोद्धार, स्त्रियों की शिक्षा, बाल विवाह निषेध, सती प्रथा और विधवा विवाह को लेकर हिन्दू समाज को जागरूक किया।
शिक्षण संस्थान:
1 जून, 1986 को लाहौर में स्वामी दयानंद के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना की थी।वर्ष 1909 में स्वामी श्रद्धानन्द ने कांगड़ी में गुरुकुल विद्यालय की स्थापना की।
शुद्धि आंदोलन :
11 फरवरी 1923 को स्वामी श्रद्धानन्द ने 'भारतीय शुद्धि सभा' की स्थापना की और शुद्धि का कार्य आरम्भ किया था। इस आंदोलन का उद्देश्य धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिंदू बनने की प्रेरणा देना था। 18 मार्च, 1923 में जमायत-उल-उलेमा ने बम्बई में बैठक कर स्वामी श्रद्धानन्द एवं शुद्धि आंदोलन की आलोचना कर निन्दा प्रस्ताव पारित किया।
आलोचना :
ब्रिटिश लेखक वेलेन्टाइन शिरोल ने 'इंडियन अनरेस्ट' नामक पुस्तक में दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक "सत्यार्थ प्रकाश" को 'ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें खोखली करने वाला' और दयानन्द सरस्वती को 'भारतीय अशांति का जन्मदाता' कहा।
विभाजन :
वर्ष 1892-1893 ई. में आर्य समाज में दो भागों में विभाजित हो गई। उसके बाद दो दलों में से एक ने पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन किया और एक ने वैदिक शिक्षा का।
स्वामी दयानन्द सरस्वती की मृत्यु :
जोधपुर के महाराजा ने वर्ष 1883 में स्वामी दयानंद को अपने महल में शिक्षा प्रदान करने के लिए आमंत्रित किया। एक दिन दयानंद महाराजा के विश्राम कक्ष में गए और उन्हें "नन्ही जान" नाम की एक नृत्यांगना के साथ देखा। स्वामी ने महाराजा से लड़की और सभी अनैतिक कार्यों को त्यागने और सच्चे आर्य की तरह धर्म का पालन करने के लिए कहा। दयानंद के सुझाव ने नृत्यांगना को नाराज कर दिया और उसने बदला लेने का फैसला किया। इसलिए वह स्वामी दयानंद के रसोइए को 29 सितंबर, 1883 को रिश्वत दे कर जहर और कुचले हुए गिलास के साथ दूध मिला कर परोस दिया। इसके वजह से स्वामी दयानंद का स्वास्थ्य बिगड़ गया। महाराज ने चिकित्सक की व्यवस्था की, परंतु कोई स्वास्थ्य लाभ नहीं हो पाया। स्वामी की हालत देख कर उनके रसोइए जगन्नाथ ने स्वामी जी से अपना अपराध स्वीकार लिया। स्वामी जी ने रसोइए को माफ कर दिया और उसे जल्द से जल्द उनके मृत्यु से पहले राज्य छोड़ कर जाने के लिए कहा।
स्वामी दयानंद सरस्वती का 59 वर्ष की आयु में 30 अक्टूबर 1883 को जोधपुर में जहर से निधन हो गया।
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