राजिम - गरियाबंद : Rajim Gariyaband



'राजिम' छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध तीर्थ स्थाल है। यह पवित्र स्थान हिन्दुओं की आस्था का केंद्र है। राजिम, रायपुर से करीब 45 किलोमीटर की दुरी पर गरियाबंद जिले में स्थित है। यहाँ का माघ पूर्णिमा का मेला पूरे भारत में प्रसिद्ध है।



राजिम के देवालय:

राजिम के देवालय ऐतिहासिक, पुरातात्विक और धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। यह पंचायतन शैली का उदहारण है। इन्हें इनकी स्थिति के आधार पर चार भागों में बांटा गया है। 
  • पश्चिमी समूह: कुलेश्वर (9वीं सदी), पंचेश्वर (9वीं सदी) और भूतेश्वर महादेव (14वीं सदी) के मंदिर। 
  • मध्य समूह: राजीव लोचन (7वीं सदी), वामन, वाराह, नृसिंह बद्रीनाथ, जगन्नाथ, राजेश्वर एवं राजिम तेलिन मंदिर। 
  • पूर्व समूह: रामचंद्र (8वीं सदी) का मंदिर। 
  • उत्तरी समूह: सोमेश्वर महादेव का मंदिर।

कुलेश्वर महादेव मंदिर- Kuleshwar Mahadev :

यह मंदिर महानदी और पैरी के संगम मे, नदी के बिच में स्थित है। कहा जाता है कि जिस जगह मंदिर स्थित है, वहां कभी वनवास काल के दौरान मां सीता ने देवों के देव महादेव के प्रतीक रेत का शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा की थी। 
वर्ष 1967 में राजिम में जब बाढ़ आई थी तब यह मंदिर पूरा डूब चुका था, परन्तु मंदिर को कोई नुकसान नहीं हुआ। इस मंदिर के शिवलिंग की मूर्ति में पैसा डालने से वह नीचे चला जाता है और की प्रतिध्वनि गूंजित होती है।


बेलहारी - Belhari :

राजिम में कुलेश्वर से थोड़ी दूरी पर दक्षिण की ओर लोमश ॠषि का आश्रम है। यहां बेल के बहुत सारे पेड़ हैं, इसीलिए यह जगह बेलहारी के नाम से भी जानी जाती है। महर्षि लोमश ने शिव और विष्णु की स्थापित करते हुए हरिहर की उपासना का महामन्त्र दिया है।  कुलेश्वर महादेव की अर्चना राजिम में आज भी इसी शैली में हुआ करती है।


रामचन्द्र मंदिर - Ramchandra Temple :

राजिम में राजीवलोचन मन्दिर से थोड़ी दूर पर पूर्व दिशा में रामसीता मन्दिर स्थित है। यह मन्दिर रतनपुर के कलचुरी नरेशों के सामन्त जगतपाल के द्वारा 12 वीं शताब्दी में बनवाया गया था।


इतिहास :
मंदिर का निर्माण नल वंशी शासक विलासतुंग केे काल मेें 712 ई. में कराया गया था। राजिम का प्रथम ऐतिहासिक दस्तावेजीकरण अंग्रेज अधीक्षक रिचर्ड जेंकिन्स ने वर्ष 1825 में किया था। वर्ष 1869 में एक और अंग्रेज पुरातत्ववेता जे. डी. बेग्लर और वर्ष 1882 में सर एलेग्जेंडर कनिंघम राजिम की यात्रा कर शोधपत्र प्रकाशित किये थे। वर्ष 1898 में पं सुंदरलाल शर्मा जी ने "श्रीराजीवक्षेत्रमहात्मय" नामक पद्य ग्रन्थ लिखा था, जिसका प्रकाशन वर्ष 1915 में हुआ था। इस ग्रन्थ में राजिम भक्तिन का संक्षेप में उल्लेख है।
इतिहासकारों के अनुसार राजा जगतपाल ने रामचंद्र मंदिर का निर्माण कराया था, जिसका शिलालेख वर्तमान राजिमलोचन मंदिर में है।


राजिम अभिलेख :

राजीव लोचन मंदिर में कल्चुरी संवत् 1816 ( 1145 ई.) का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है जिसे रतनपुर के कल्चुरी नरेशों के सामंत जगतपाल ने लिखवाया था। अभिलेख में रतपालदेव के वंश का नाम राजमल लिखा हुआ है।

रतनपुर के कलचुरी नरेश जालल्लदेव प्रथम एवं रत्नदेव द्वितीय के विजय का उल्लेख राजीव लोचन मंदिर से प्राप्त शिलालेखों मे हुआ है। राजिम से प्राप्त महाशिव तीवरदेव के ताम्रपत्र से उसके साम्राज्य की सीमा के बारे में जानकारी मिलती है। राजिम से प्राप्त अभिलेखों से नल वंश के शासक विलासतुंग के बारे में जानकारी मिलती है। राजिम के पास पितईबंद नाम का एक गांव से प्राप्त मुद्रा से "स्कन्दगुप्त(क्रमादित्य)'' नाम के राजा के बारे में पता चला है और यह भी प्रमाणित हुआ है कि महेन्द्रादित्य के साथ उसके पारिवारिक संबंध थे।

यहां से मृण्पात्र के अवशेष मिले है जिसके अवशेषों के अध्ययन से कहा गया है कि यहां की संस्कृति की शुरुआत चाल्कोलिथिक युग में हुई थी।