आंग्ल-मराठा युद्ध Anglo-Maratha War

मराठा साम्राज्य की स्थापना वर्ष 1674 में छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा की गयी थी। जिन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत मुगलों के खिलाफ एक विद्रोही के रूप में की थी। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य का तेजी से विघटन हुआ और मराठों ने अधिक से अधिक प्रदेशों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। जब ब्रिटिश भारत में स्थापित शक्ति के रूप में उभरे उस समय तक मराठे मध्य भारत के अनेक हिस्सों में अपनी सत्ता स्थापित कर चुके थे। प्रारंभ में, ब्रिटिश और मराठों के अच्छे संबंध रहे।


अंग्रजो और मराठो के मध्य विवाद का कारण अंग्रजो का भारत में क्षेत्र विस्तार करना था। जब ब्रिटिश और मराठों मध्य संघर्षों का क्रम शुरू हुआ तब तक मराठे पाँच सत्तारूढ़ परिवारों के समूह में बंट चुके थे- पुणे के पेशवा, ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होल्कर, बड़ौदा के गायकवाड और नागपुर के भोंसले।

ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठों के बीच तीन प्रमुख युद्ध लड़े गाये।
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध 1775-82
रघुनाथ राव ने पेशवा बनने के लिए ब्रिटिश मदद मांगी क्योंकि उन्हें नाना फड्नविस की अध्यक्षता वाली मराठों की परिषद की ओर से विरोध का सामना करना पड़ रहा था। मार्च 1775 में रघुनाथ राव की सेना गुजरात में पराजित हो गयी और मद्रास तथा बंबई से एक संयुक्त ब्रिटिश सेना उनके बचाव के लिये आयी। वर्ष 1776 में पुरन्दर की एक अनिर्णायक संधि में रघुनाथ राव के लिए समर्थन की वापसी के बदले में कंपनी को कई रियायतों की पेशकश की गयी। लेकिन बंगाल में कंपनी के अधिकारियों ने संधि की पुष्टि नहीं की और वर्ष 1777 पुनः युद्ध शुरू हो गया। इस बीच अपनी हार का बदला लेने और अंग्रेज शक्ति को कुचलने के लिए नाना फड्नविस, सिंधिया और होल्कर ने फिर से एकजुट होने के उद्देश्य से वर्ष 1779 में वाडेगांव में एक गठबंधन की स्थापना की।
वर्ष 1781 रघुनाथ राव और भोंसले परिवार अंग्रेजों के खिलाफ निजाम और हैदर अली के साथ मिलकर एक विशाल गठबंधन कायम कर चुके थे। परंतु प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध वर्ष 1782 मे साल्बाई की संधि की वजह से समाप्त हो गया। इस संधि ने माधव राव नारायण को असली पेशवा के रूप में मान्यता दी। दूसरी ओर, अंगेर्जों ने साल्सेट और बेसिन पर नियंत्रण हासिल कर लिया।

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध 1803-05
दूसरा आंग्ल-मराठा युद्ध मराठों को 'सहायक संधि' प्रणाली के अंतर्गत लाये जाने के ब्रिटिश प्रस्ताव के मुद्दे पर शुरू हुआ। समस्या की शुरुआत वर्ष 1802 में पेशवा बाजीराव द्वितीय द्वारा ‘बेसिन की संधि’ पर हस्ताक्षर करने और ‘सहायक संधि’ के ब्रिटिश प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने से शुरू हुई। इस संधि के अनुसार, पेशवा को सब्सिडी के रूप में एक बड़ी राशि का भुगतान करना था। इसके अलावा, वह ब्रिटिश सहमति के बिना किसी अन्य शक्ति के साथ किसी भी गठबंधन में प्रवेश नहीं कर सकता था।
‘बेसिन की संधि’ को अन्य मराठा प्रमुखों द्वारा अस्वीकार कर दिया जिससे दूसरे आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-05) की शुरुआत हुई। इस युद्ध के परिणामस्वरुप मराठों की अनेक शाखाओं पर परतंत्रता की संधियां थोप दी गयीं। इसके अलावा, दिल्ली और आगरा सहित सिंधिया द्वारा नियंत्रित अनेक क्षेत्र अंग्रेजों द्वारा ले लिये गये। अंग्रेजो को यह अधिकार भी मिल गया की मराठा घरानो के मध्य विवाद की अन्तिम मध्यस्थता भी अंग्रेज ही करेंगे।

तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध 1817-19
अंग्रेजों और मराठों के मध्य संघर्ष के तीसरे और अंतिम चरण की शुरुआत में वर्ष 1813 में गवर्नर जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स के द्वाराा भारत में "सर्वोपरिता" की नई नीति की शुरुआत से हुई। जिसके अनुसार भारत भूमि पर कम्पनी के हितों को सर्वोच्च वरीयता दी जानी थी और इन हितों के संरक्षण के लिए कंपनी किसी भी भारतीय शक्ति का विलय करने अथवा विलय की धमकी देने का वैधानिक अधिकार रखती थी। इस समय पेशवा बाजीराव द्वितीय ने मराठा प्रमुखों के समर्थन से अपनी स्वतंत्रता हासिल करने के लिए एक अंतिम प्रयास किया। तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध के परिणाम मराठों के लिए घातक साबित हुए।
अंग्रेजों ने पेशवा के क्षेत्रों पर पूरा नियंत्रण स्थापित कर लिया तथा पेशवा के पद को समाप्त कर दिया। भोंसले और होल्कर ने अधीनता की संधि स्वीकार कर ली और उनके इलाके के महत्वपूर्ण भाग कंपनी को सौंप दिये गये। इसके अलावा अंग्रजो ने पिंडारियों के नाम से जानी जाने वाली मराठों की अनियमित सेना को पुर्णतः कुचल दिया गया।

इन्हे देखें:
आंग्ल-मराठा संधियाँ 
ब्रिटिश संरक्षण में मराठा शासन
आंग्ल मराठा युद्ध