बोहड़ा एक लोक-नाट्य है जिसे महाराष्ट्र के ठाकर, कोकणा, वारली, कोली आदि जनजातियों द्वारा किया जाता है, इसमे दशावतार को मंचित किया जाता है। प्रस्तुति की शुरुआत गणेश आराधना से होती है जिसके पश्चात सूत्रधार द्वारा अलग-अलग पात्रों की उद्घोषणा की जाती है और वे पात्र क्रमशः मंच पर प्रकट होने लगते हैं। प्रस्तुति में समूह स्वर में उन पात्रों पर गीतों का गायन किया जाता है। इस प्रस्तुति में ढोलक, मंजीरा, डफ और महाराष्ट्र का एक विशेष वाद्य यंत्र तुंतुने का वादन किया जाता है। पौराणिक कथाओं पर आधारित इस नृत्य में मुखौटों का भी प्रयोग किया जाता है।
महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट क्षेत्र के कोकणा जनजाति के लोग अच्छे मुखौटे बनाने वाले कलाकार भी हैं। इस नृत्य में उपयोग में लाए जाने वाले मुखौटे लकड़ी, कागज़ की लुगदी, बांस, चमड़ा आदि विविध सामग्रियों से निर्मित किये जाते हैं। इन मुखौटों में गणेश, रावण, हनुमान, कोलाबा रागताई, महासोबा, छेड़ा, विष्णु, वाघोबा, आदि प्रमुख हैं, इनके अतिरिक्त कुछ पशुओं के मुखौटे भी इस्तेमाल किये जाते हैं। इन सभी को पहनकर संबंधित पात्र का अभिनय किया जाता है।
बोहाड़ा नृत्य-नाट्य बोहाड़ा त्योहार, दीपावली तथा होली के अवसर पर आयोजित होते हैं।