छत्तीसगढ़ के लगभग सभी आदिवासी इलाकों में खास कर बस्तर में लाल चींटी के औषधीय गुण के कारण इसकी चटनी खाई जाती हैं। इन चीटियों में औषधीय गुण होते है। माना जाता है कि लाल चींटी की चटनी खाने से मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियां नहीं होती हैं। इस चटनी को चापड़ा कहा जाता है।
लाल चींटियों की चटनी आदिवासी इलाकों में लगने वाले साप्ताहिक बाजारों में बिकते देखी जा सकती है। लाल चींटी की चटनी को औषधि के रूप में प्रयोग ला रहे आदिवासियों का कहना है कि चापड़ा को खाने की सीख उन्हें अपनी विरासत से मिली है। यदि किसी को बुखार आ जाए तो उस व्यक्ति को उस स्थान पर बैठाया जाता है जहां लाल चींटियां होती हैं।
कहाँ पाये जाती है ये चीटियां?
ये चीटियां प्रायः आम, अमरूद, साल और अन्य ऐसे पेड़ जिनमें मिठास होती है उन पेड़ों पर यह चींटियां अपना घरौंदा बनाती हैं। इन पेड़ों से आदिवासी एक पात्र में इन चींटियों को एकत्र करते हैं।
ये चीटियां प्रायः आम, अमरूद, साल और अन्य ऐसे पेड़ जिनमें मिठास होती है उन पेड़ों पर यह चींटियां अपना घरौंदा बनाती हैं। इन पेड़ों से आदिवासी एक पात्र में इन चींटियों को एकत्र करते हैं।
बनाने की विधि:
आदिवासी लाल चीटियों को पहले एकत्र, फिर इन चीटियों को पिसा जाता है। पीसने के बाद नमक, मिर्च मिलाकर रोटी के साथ या ऐसे ही खा लिया जाता है। चींटी में फॉर्मिक एसिड होने के कारण इससे बनी चटनी का स्वाद चटपटी होती है।
आदिवासी लाल चीटियों को पहले एकत्र, फिर इन चीटियों को पिसा जाता है। पीसने के बाद नमक, मिर्च मिलाकर रोटी के साथ या ऐसे ही खा लिया जाता है। चींटी में फॉर्मिक एसिड होने के कारण इससे बनी चटनी का स्वाद चटपटी होती है।