छत्तीसगढ़ का इतिहास - History Of Chhattisgarh

छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम 'दक्षिण कौशल' था जो छत्तीस (36 ) गढ़ों को अपने में समाहित रखने के कारण कालांतर में "छत्तीसगढ़" बन गया। ठीक वैसे ही, जैसे  'मगध' जो बौद्ध विहारों की अधिकता के कारण "बिहार" बन गया।

छत्तीसगढ़ में मेघवंश ( दूसरी शताब्दी) बाणवंश, राजर्षितुल्य कुल, पर्वद्वारक वंश, नल वंश, शरभपुरी वंश, पाण्डू वंशसोमवंश - सिरपुर, काक्तीय, वाकाटक और पाण्डू वंश - मैकल राजवंशो ने शासन किया था। कलचुरि शासन में गढ़ महत्वपूर्ण इकाई थी। छत्तीसगढ़ ३६ में विभाजित था। छत्तीसगढ़ में कलचुरियो की दो शाखाये थी। 


"छत्तीसगढ़" वैदिक और पौराणिक काल से ही विभिन्न संस्कृतियों के विकास का केन्द्र रहा है।  इस क्षेत्र का  उल्लेख प्राचीन ग्रंथो जैसे 'रामायण' और 'महाभारत' में भी है। 

यहाँ के प्राचीन मन्दिर तथा उनके भग्नावशेष इंगित करते हैं कि यहाँ पर वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध के साथ ही अनेक संस्कृतियों का विभिन्न कालो में प्रभाव रहा है।

पौराणिक महत्व:
प्राचीनकाल में दक्षिण कोशल का विस्तार पश्चिम में त्रिपुरी से ले कर पूर्व में उड़ीसा के सम्बलपुर और कालाहण्डी तक था। पौराणिक काल में  इस क्षेत्र को 'कोशल' प्रदेश कहा जाता था, जो कि कालान्तर में दो भागों में विभक्त हो गया - 'उत्तर कोशल' और 'दक्षिण कोशल', और 'दक्षिण कोशल' ही वर्तमान छत्तीसगढ़ कहलाता है।

प्राचीन काल में इस क्षेत्र के एक नदी महानदी का नाम उस काल में 'चित्रोत्पला' था।  जिसका उल्लेख मत्स्यपुराण, वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत के भीष्म पर्व में वर्णन है -

"मन्दाकिनीदशार्णा च चित्रकूटा तथैव च।
तमसा पिप्पलीश्येनी तथा चित्रोत्पलापि च।।"
मत्स्यपुराण - भारतवर्ष वर्णन प्रकरण - 50/25

"चित्रोत्पला" चित्ररथां मंजुलां वाहिनी तथा।
मन्दाकिनीं वैतरणीं कोषां चापि महानदीम्।।"
- महाभारत - भीष्मपर्व - 9/34

"चित्रोत्पला वेत्रवपी करमोदा पिशाचिका।
तथान्यातिलघुश्रोणी विपाया शेवला नदी।।"
ब्रह्मपुराण - भारतवर्ष वर्णन प्रकरण - 19/31

वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट उल्लेख है की इस क्षेत्र में  स्थित सिहावा पर्वत के आश्रम में निवास करने वाले श्रृंगी ऋषि ने ही अयोध्या में राजा दशरथ के यहाँ पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्र्येष्टि यज्ञ करवाया था। राम ने अपने वनवास की अवधि इस क्षेत्र में आये थे।
दण्डकारण्य नाम से प्रसिद्ध वनाच्छादित प्रान्त उस काल में भारतीय संस्कृति का प्रचार केन्द्र था। यहाँ के एकान्त वनों में ऋषि-मुनि आश्रम बना कर रहते और तपस्या करते थे। इनमें वाल्मीकि, अत्रि, अगस्त्य, सुतीक्ष्ण प्रमुख थे।

बौद्ध एवं जैन रचनाओं में :

बौद्ध रचना 'अंगुत्तर निकाय' एवं जैन रचना 'भगवती सुत्त' में १६ महाजनपदों का उल्लेख है जिनमे से एक 'कोसल' है। 'कोसल' दो भागो दक्षिण एवं उत्तरी में विभाजित था।   


अनेक साहित्यको ने इस एक हजार वर्ष को इस प्रकार विभाजित किया है :

छत्तीसगढ़ी गाथा युग - सन् 1000 - 1500 ई.
छत्तीसगढ़ी भक्ति युग या मध्य काल, सन् 1500- 1900 ई.
छत्तीसगढ़ी आधुनिक युग - सन् 1900 ई. से आज तक


>छत्तीसगढ़ का इतिहास - छत्तीसगढ़ का परिचय एवं नामकरण
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